December 24, 2009

भारतीय रेलगाड़ी में सफ़र- एक अनोखा अनुभव

भारतीय रेलगाड़ी का सफ़र अपने-आप में एक अनोखा अनुभव होता है क्योंकि ये दो बातों पर निर्भर करता है - पहेला आप कौन-सी श्रेणी में सफ़र कर रहे हैं और दूसरा किस तरह के लोगों से आप घिरे हुए हैं. रेलगाड़ी भारत की आम जनता को उसकी मंजिल तक पहुँचाने के लिए दिन-रात, सुबह-शाम लगी रहती है. एक पल भी चैन की सांस नहीं लेती. क्या करें जब देश की जनता ही एक अरब से ज्यादा हो !

जेनेरल श्रेणी से लेकर पहली  श्रेणी तक अच्छी तादाद में आपको हर क़िस्म के लोग मिलेंगे. कहीं पूरा का पूरा परिवार अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर स्थानांतरण कर रहा है तो कहीं एक व्यापारी मोबाइल फ़ोन पर पैसों को लेकर झगड़ रहा है. कहीं पिता अपने बेटे को छोड़ने आया है तो कहीं नया शादी-शुदा जोड़ा हनीमून के लिए जा रहा है. सबके अपने-अपने सपने हैं, सबकी अपनी-अपनी मंजिल है.

जेनेरल श्रेणी में सफ़र कर रहे हैं तो क्या कहने ! गाड़ी के डिब्बे के एक-एक कोने के लिए जंग होती है. भारत की गरीब जनता जो थोड़े बहुत सपने और थोड़ी बहुत आशा लिए अपने गाँव से शहर की ओर चलती है; वो गरीब जनता जिससे अपने खुद के गाँव में न खाने को मिलता है, न पानी, न बिजली है. अगर आप अपनी सीट से उठे तो वो  आपको फिर सपने में भी नहीं मिलेगी. वो अब पराई हो गयी. भूल जाइए कि वो कभी आपकी थी. इस श्रेणी में जनता ही नहीं हमारी प्यारी मुर्गियां और बकरियां भी सफ़र करती हैं. जी हाँ, क्या आपने कभी गौर से देखा नहीं? शायद इसलिए नहीं देख पाए होंगे क्योंकि हमारी अनगिनत जनता के बीच में वो कहीं दब जाती होंगी. नहीं, नहीं उनका कीमा तो नहीं बनता इतना मुझे यकीन है. कभी आपने ध्यान दिया है खिड़की पर क्या-क्या लटका होता है - हाँ, हाँ जनता तो लगभग लटक ही रही होती है, पर कभी देखिये दूध के कनिस्तर, सब्जियों के थैले और लोगों के छोटे-बड़े टीन के डब्बे. अगर आपने कुछ और देखा हो तो मेरी सूची में अवश्य जोड़ दीजिएगा.

स्लीपर श्रेणी का सफ़र आरामदायक होता है. दिन में भले ही लोग आपकी सीट पर क्यों न बैठे हों पर रात में आप आराम से अपनी सीट पर पैर फैलाकर सो सकते हैं. खिड़की से ताज़ी हवा आती है और हाँ कभी-कभी धूल-मिट्टी भी. बच्चे खिड़की के पास बैठने के लिए झगड़ते हैं. और मान लीजिये कि कोई सज्जन खिड़की के पास बैठे हैं और उनसे अगर अनुरोध करें कि ज़रा आपके बच्चे को थोड़ी देर खिड़की के सामने बैठने दीजिये (क्योंकि आपके एक नहीं दो बच्चे हैं. एक पहेले ही लड़-झगड़ कर एक खिड़की के पास बैठ गया है, अब आपको दूसरे के लिए खिड़की का इंतज़ाम करना है). आपने अनुरोध किया और सज्जन महाशय जी ने मना कर दिया. अरे भाई साहब आप किताब पढ़ रहे हैं, खिड़की के बाहर देख भी नहीं रहे. आधे-एक घंटे के लिए मेरे लाडले को बैठने दीजिये. पर नहीं सज्जन महाशय टस-से-मस नहीं हुए. अब आपकी नज़रों में सज्जन महाशय न सज्जन रहे और न ही महाशय.
रात के वक़्त गर्मी न लगे इसलिए खिड़की थोड़ी खुली रखते हैं. रात के बारह बजे आया एक स्टेशन. अब रात को भी स्टेशन पर इक्के-दुक्के सामान बेचने वाले अक्सर होते हैं. आप सो रहे हैं चैन की नींद और उनको बेचना है सामान. आपकी खुली खिड़की देखी और आ गए " ताले, ताले, अलीगढ के ताले" और ऐसी आवाज़ में जो आपको आपकी कुम्भकरण वाली नींद से भी उठा देगी. आपको आया गुस्सा और आपने कहा "ताले अपने मुंह पर लगा ले!" अब उसने आपकी बात पर अमल किया या नहीं वो अलग बात है.

तृतीय और द्वितीय ए-सी श्रेणी का सफ़र आजकल मध्यम वर्गीय भारतीय के लिए काफी आसान हो गया है. भारत की अर्थव्यवस्था में काफी सुधार आया है और इसलिए लोगों की पैसे खर्च करने की क्षमता भी बड़ गयी है. तो मध्यम वर्गीय भारतीय के लिए इस श्रेणी में सफ़र करना अब आम बात हो गयी है. आम बात तो हो गयी है पर लोगों की आदतें तो जैसी की तैसी रहती हैं. अब जैसे ही सोने के लिए बत्ती बुझाई आपकी बर्थ के ऊपर लेटे हुए साहब ने खुर्राटे मारने शुरू कर दिए. एक बार आपने उठा कर कहा "भाई साहब ज़रा खुर्राटे न मारें". "माफ़ करिए अब नहीं होगा" कह कर वो सो गए. पर खुर्राटे फिर वापिस आ कर आपको परेशान करते हैं. आपकी तो नींद छूमंतर हो गयी. अगर ये किस्सा नहीं होता है तो रात को कोई न कोई नन्हा-मुन्हा बच्चा ज़रूर रोता है. अब वो बेचारा बोल तो नहीं सकता, रो ही सकता है. ऐसे मौके पर माँ को कुछ कह भी नहीं सकते. अगर आपको तकलीफ है तो आप सफ़र करना बंद कर दीजिये.  एक बार एक सज्जन विदेश से किसी काम के सिलसिले में पहेली बार भारत आए. आने से पहेले उन्होंने भारत के बारे में इन्टरनेट पर खूब खोज की. अपने भारतीय दोस्तों से राए भी ली. अब किसी से बातें सुनना और खुद अनुभव करने में कई बार ज़मीन-आसमान का फर्क होता है. भारत आए और मुंबई से दिल्ली का सफ़र ए-सी द्वितीय में कर रहे थे. सब कुछ ठीक चल रहा था. पर पता नहीं कहाँ से उन्हें गणेश जी का वाहन - चूहा - दिख गया. बस उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुल हो गयी. रात भर सोए नहीं. उन्होंने लगता है इस बारे में इन्टरनेट पर खोज नहीं की. अब क्या कहें, उनका भाग्य थोड़ा खराब था.

 ए-सी प्रथम श्रेणी की क्या बात करें. आराम ही आराम है. आपको खूब खिलाया-पिलाया जाता है. एक पूरा का पूरा कैबिन आपका भी हो सकता है अगर आपको सिर्फ दो बर्थ वाला कैबिन मिला हो. मैंने कभी इसमें सफ़र नहीं किया है तो कहानियाँ भी नहीं बता सकती. आपने किया हो और कोई मज़ेदार  किस्सा हो तो ज़रूर बताईएगा.

अलग- अलग विचारों वाले लोग, अलग-अलग भाषा, तरह-तरह की आदतें, कोई-न-कोई मंज़िल- इन सबको ले कर रेलगाड़ी चलती है. कभी-कभी सह-यात्री दोस्त बन जाते हैं- नाम, पता, फ़ोन नंबर का आदान-प्रदान होता है. और कई बार छोटे-मोटे वार्तालाप के बाद ही कहानी समाप्त हो जाती है.                                                                      





     

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